SHRI SHIV SHANI MANDIR DHORI

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Wednesday, December 23, 2020

श्री कृष्ण स्तुति

कस्तूरी तिलकं ललाट पटले वक्ष: स्थले कौस्तुभं।
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणु: करे कंकणं॥
भावार्थ:- हे श्रीकृष्ण! आपके मस्तक पर कस्तूरी तिलक सुशोभित है। आपके वक्ष पर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि विराजित है, आपने नाक में सुंदर मोती पहना हुआ है, आपके हाथ में बांसुरी है और कलाई में आपने कंगन धारण किया हुआ है।

सर्वांगे हरि चन्दनं सुललितं कंठे च मुक्तावली।
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणि:॥
भावार्थ:- हे हरि! आपकी सम्पूर्ण देह पर सुगन्धित चंदन लगा हुआ है और सुंदर कंठ मुक्ताहार से विभूषित है, आप सेवारत गोपियों के मुक्ति प्रदाता हैं, हे गोपाल! आप सर्व सौंदर्य पूर्ण हैं, आपकी जय हो।


जयति तेऽधिकं जन्मना ब्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥ 
भावार्थ:- हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ गयी है, तभी तो सौन्दर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोड़कर यहाँ की सेवा के लिये नित्य निरन्तर यहाँ निवास करने लगी हैं। हे प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपीयाँ जिन्होने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वन मे भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं। 

शरदुदाशये साधुजातसत् सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥ 
भावार्थ:- हे हमारे प्रेम पूरित हृदय के स्वामी! हम तुम्हारे बिना मोल की दासी हैं, तुम शरद ऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो। हे प्रिय! अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रों से मारना हमारा वध करना नहीं है। 

विषजलाप्ययाद्‍ व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्‍ वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद्‍ विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥ 
भावार्थ:- हे पुरुष शिरोमणि! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अज़गर के रूप में खाने वाला अधासुर, इन्द्र की बर्षा, आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार भयों से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है। 

न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥ 
भावार्थ:- हे हमारे परम-सखा! तुम केवल यशोदा के पुत्र ही नहीं हो, तुम तो समस्त शरीर धारियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से रहने वाले साक्षी हो। हे सखा! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिये तुम यदुवंश में प्रकट हुए हो। (४)

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥ 
भावार्थ:- हे यदुवंश शिरोमणि! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे रहते हो, जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हे तुम्हारे करकमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं। सबकी लालसा-अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी का हाथ पकड़ा है। हे प्रिय! वही करकमल हमारे सिर पर रख दो।

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय॥ 
भावार्थ:- हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम तो सभी ब्रजवासियों के दुखों को दूर करने वाले हो, तुम्हारी मन्द-मन्द मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान मद को चूर-चूर कर देने के लिये पर्याप्त है। हे प्यारे सखा! हम से रूठो मत, प्रेम करो, हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों में निछावर हैं, हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर साँवला मुखकमल दिखलाओ।

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥
भावार्थ:- तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणीयों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं, लक्ष्मीजी सौन्दर्य और माधुर्य की खान हैं, वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती हैं, वह कोमल चरण बछड़ों के पीछे-पीछे चल रहे हैं, उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था, तुम्हारी विरह की वेदना से हृदय संतप्त हो रहा है, तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है। हे प्रियतम! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदय की आग्नि को शान्त कर दो

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥ 
भावार्थ:- हे कमलनयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है, तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिये अमृत से बढ़कर मधुर हैं, बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रहीं है। हे दानवीर! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन दान दो।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥
भावार्थ:- हे हमारे स्वामी! तुम्हारी कथा अमृत स्वरूप हैं, जो विरह से पीड़ित लोगों के लिये तो वह जीवन को शीतलता प्रदान करने वाली हैं, ज्ञानीयों, महात्माओं, भक्त कवियों ने तुम्हारी लीलाओं का गुणगान किया है, जो सारे पाप-ताप को मिटाने वाली है। जिसके सुनने मात्र से परम-मंगल एवं परम-कल्याण का दान देने वाली है, तुम्हारी लीला-कथा परम-सुन्दर, परम-मधुर और कभी न समाप्त होने वाली हैं, जो तुम्हारी लीला का गान करते हैं, वह लोग वास्तव में मत्यु-लोक में सबसे बड़े दानी हैं।
 
! जय श्री कृष्ण हरे !